डा. लोकेश शुक्ल कानपुर 9450125954
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 को 25 अप्रैल, 1872 को अधिनियमित किया गया था तथा 1 सितंबर 1872 केा लागू हुआ था ।
यह अधिनियम भारत के नागरिकों को दिए गए संविदात्मक अधिकारों को अपने दायरे में लाता है। यह अनुबंध करने वाले पक्षों को अधिकार, कर्तव्य और दायित्व प्रदान करता है, तथां सामान्य से लेकर अन्र्तराश्टृीय सम्बन्ध सफलतापूर्वक प्रख्यापित कर सके।
यह अंग्रेज सरकार द्वारा तैयार महात्वपुर्ण कानून है और अनियमित लेन-देन संबंधों को नियंत्रित करने वाले सामान्य सिद्धांत के अन्र्तगतं अधिनियमित किया गया है ।
भारतीय अनुबंध अधिनियम के अधिनियमित होने से पहले अनुबंध विभिन्न धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित थे,
विभिन्न कालखण्डो में अनुबंध कानून का विकास
1. वैदिक और मध्यकाल
भारत में मानव इतिहास के संपूर्ण प्राचीन और मध्यकालीन काल मे अनुबंधों के सन्दर्भ मे कोई सामान्य कानून नहीं था। वेद, धर्मशास्त्र, स्मृतियाँ और श्रुति के समय मे अनुबंधों के समान कानून का विशद वर्णन देते थे जो अनुबंधों को नियंत्रित करने वाले व्यवहारिक कानून का हिस्सा थे।
चंद्रगुप्त काल मे अनुबंध दो व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह के बीच ‘‘द्विपक्षीय लेनदेन‘‘ के रूप में था। इसके आवश्यक तत्व स्वतंत्र सहमति और इसमें शामिल सभी नियमों और शर्तों पर आम सहमति पर आधरित थे। तथा ऐसे उक्त अनुबंध अमान्य थे जो
1. रात के दौरान अनुबंध बनाए गए।
2. घर के आंतरिक कक्ष में अनुबंध दर्ज किए गए।
3. जंगल में किए गए अनुबंध
4. किसी अन्य गुप्त स्थान पर किए गए अनुबंध ।
5. गुप्त अनुबंधों में कुछ अपवाद थे
क. हिंसा, हमले और झगड़े को रोकने के लिए किए गए अनुबंध
ख. विवाह के उपलक्ष्य में किए गए अनुबंध
ग. सरकार के आदेश के तहत किए गए अनुबंध
ध. व्यापारियों, शिकारियों, जासूसों और अन्य लोगों द्वारा किए गए अनुबंध जो अक्सर जंगल में घूमते थे।
जमानत में (जमानती के) अधिकार और कर्तव्य जैसा भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 151 और 152 मे हैं था, कात्यायनस्मृति में विशेष प्रावधान है जिसे शिल्पिन्यासा कहा जाता है, जो एक कारीगर के पास कच्चे माल को जमा करने से संबंधित है - जो कि देखभाल की डिग्री के बारे में बताता है। कि ‘‘यदि कोई कारीगर भगवान या राजा के कृत्यों के कारण नुकसान से निर्धारित समय मे उसके पास जमा की गई वस्तुओं को वापस नहीं कर पाता तो एसे मामलों में भी इसकी कीमत चुकानी होगी। जबंकि कारीगर नुकसान के लिए जिम्मेदार नहीं है ऐसा गलत था जब तक कि नुकसान उसकी गलती के कारण नही हुआ है ।
उधार दिए गए पैसे के लिए मुकदमा लाने की कोई सीमा नहीं थी । ‘दमदुपत‘ के नियम में कहा गया था कि ‘एकमुश्त एकमुश्त राशि में वसूल की जाने वाली मूल राशि और ब्याज उधार दिए गए पैसे से दोगुने से अधिक नहीं हो सकते।‘
ऋण वसूली व्यक्ति से ही नही बल्कि उसके वंशज से भी की जाने का प्रवधान कलकत्ता और बॉम्बे में ‘दमदुपत‘ का नियम अभी भी प्रचलित है इसे वैध प्रथा माना गया है और इस प्रकार बचत खंड, धारा 1 के तहत इसे लागू किया जा सकता है।
2. रोमन कालः
रोमन काल के आरभ्मिक कानूनो मे अनुबन्ध को लागू करने के लिए किसी सामान्य मानदंड के स्थान पर कई श्रेणियों के साथ विकसित हुआ। यह धारणा कि अनुबन्ध स्वयं लागू करने योग्य कर्तव्य को जन्म देता है, जो कानून की विशेशता थी।
क. शर्त (स्टिपुलेशन)ः
यह औपचारिकताओं के साथ लागू होता था और रोमन कानून में बहुत पहले से ही है। कोई भी पक्ष ‘‘शर्त‘‘ एक बाध्यकारी अनुबन्ध कर सकता था जिसमें पक्ष और विपक्ष निर्धारित रूप का पालन करता था।, लेकिन केवल एक पक्ष ही बाध्य था।
ख. वास्तविक अनुबंधः
वह अनुबंध जो वादों के निष्पादनीय आदान-प्रदान के लिए उपयुक्त थे। उदाहरण के लिए, ऋण का अनुबंध, जिसमें प्राप्तकर्ता के लिये अनुबंध बाध्यकारी था।
ग. सहमति से किए गए अनुबंधः
यह अनुबंध ज्यादा लचीले और विशुद्ध रूप से निष्पादनीय आदान-प्रदानू करने के लिए कोई कानूनी आधार नहीं रखते थे। वे ‘‘शर्तों‘‘ की औपचारिकताओं से अलग केवल समझौते से वादों को बाध्यकारी बनाने के लिए पर्याप्त थे। तथा वे चार महत्वपूर्ण प्रकार के अनुबंधों तक सीमित थे ।
1. बिक्री,
2. किराया,
3. साझेदारी और
4. अधिदेश।
ध. इनोमिनेट कॉन्ट्रैक्ट्स
इन अनुबन्धो के तहत एक पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा समान अनुबंध के बदले में कुछ देने या करने का अनुबंध किया जाता था। वास्तविक और सहमति से किए गए अनुबंधों के विपरीत लेन-देन के निर्दिष्ट वर्गों तक सीमित नहीं थे और इसलिए उन्हें इनोमिनेट कहा जाता था । वादे की प्रवर्तनीयता के लिए बदले में कुछ प्रदर्शन की आवश्यकता होती थी और इसे क्विड प्रो क्वो (यानी अनुबंध के प्रतिफल की आधुनिक अवधारणा ) कहा जाता था। लेकिन ये अनुबंध सीमित थे क्योंकि वे केवल तभी बाध्यकारी थे जबकि पक्षों में से एक ने प्रदर्शन पूरा कर लिया था और ऐसा होने तक कोई भी पक्ष दायित्व से बच सकता था।
च. डोटिस डिक्टियोः
यह वर और वधू के बीच दहेज समझौते से संबंधित था। इस अनुबंध में वधू का पिता या वधू स्वयं वर के लिए निर्धारित दहेज की राशि और प्रकृति निर्धारित करती है और वर की उपस्थिति में इसकी घोषणा करती है। यह एक सामाजिक समझौता था। अनुबंध के उल्लंघन के मामले में कोई दंड नहीं था, उल्लंघन के मामले में दूल्हे के परिवार के पास एकमात्र उपाय यह है कि वह वधू के परिवार को अनुबंध पूरा करने के लिए बाध्य करे।
छ. लेक्स मैनसिपीः
यह अनुबंध संपत्ति हस्तांतरण अनुबंध के आधुनिक अनुबंध के समान था।
ज. फडुशियाः
यह उपर्युक्त अनुबंध का एक सहायक अनुबंध था।
झ. उडीमोनियमः
यह अनुबंध आज के गारंटी अनुबंध के समान था।
3. इस्लामी काल
भारत में मुस्लिम शासन मे अनुबंध से संबंधित सभी मामले मुस्लिम कानून के तहत शासित होते थे। अरबी में अनुबंध शब्द अक्द है जिसका अर्थ संयोजन है। यह प्रस्ताव (इजाब) और स्वीकृति के संयोजन को दर्शाता है जो कि कबूल है।
अनुबंध के लिए आवश्यक था कि इसमें दो पक्ष हों, एक पक्ष प्रस्ताव करे और दूसरा उसे स्वीकार करे, दोनो में इस बात पर सहमति होनी चाहिए कि उनकी घोषणा एक ही मामले से संबंधित होनी चाहिए और अनुबंध का उद्देश्य कानूनी परिणाम उत्पन्न करना होना चाहिए।मुस्लिम कानूनों के तहत गैरकानूनी लेन-देन को शून्य माना जाता थाः ।
क. रिबा अल-फदलः
इस अनुबंध में समसामयिक लेनदेन में प्रतिमूल्यों के विनिमय में अवैधानिक अधिकता उत्पन्न करता है।
ख. रिबा अल-नसीआः
इसका अर्थ है वह अनुबंध जो प्रतिमूल्यों का विनिमय पूरा किए बिना अवैध लाभ उत्पन्न करता है।
ग. रिबा अल-जाहिल्याः
इसमें ऋणदाता उधारकर्ता से पूछता है कि क्या वह ऋण चुकाएगा या ऋण बढ़ाएगा।
एक अन्य प्रकार का लेन-देन जो मुस्लिम कानूनों के अनुसार निषिद्ध थे और भारतीय अनुबंध अधिनियम के अनुसार निषिद्ध थे जैसे जुआ, आकस्मिक अनुबंध या दांव लगाने से संबंधित अनुबंध।
इस्लामी कानून के अनुसार अनुबंध के लिए किसी भी प्रकार की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती है, केवल दोनों पक्षों की स्पष्ट सहमति, प्रस्ताव और स्वीकृति होनी चाहिए। इस्लाम के अनुसार अनुबंध निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरत है।
1. संपत्ति का हस्तांतरणः
2. विनिमय जैसी बिक्री के लिए
3. बिना किसी आदान-प्रदान के जैसे कि एक साधारण उपहार देना
4. उत्तराधिकार बनाने के लिए अर्थात अनुरोध
5. उपभोक्ता अधिकार का अलगावः
संपत्ति के बदले में, जिसे इजारा कहते हैं, जहां चल और अचल चीजें किराए पर दी जाती हैं, माल की ढुलाई, संपत्ति की सुरक्षित अभिरक्षा जैसी सेवाएं देने के लिए अनुबंध किए जाते हैं।
समायोजित ऋण (अरियत) और जमा (वाडियुत) की तरह संपत्ति का आदान-प्रदान नहीं होना
इस्लामी कानून अनुबंधों को अमान्य करने के दो तरीके प्रदान करते हैं, पहला किसी भी पक्ष को बिना किसी कानूनी कारण के अनुबंध को एकतरफा रद्द करने का अधिकार और दूसरा निराशा के आधार पर अनुबंध को समाप्त करना।
अनुबंधों के विघटन के आधार इस प्रकार हैंः
क. आपसी समझौते की अमान्यता
ख. किसी भी पक्ष की मृत्यु या विषय-वस्तु के नष्ट हो जाने या समयावधि समाप्त हो जाने पर अनुबंध का रद्द होना।
ग. किसी भी पक्ष द्वारा समाप्ति द्वारा रद्दीकरण
ध. अनुबंध की समाप्ति द्वारा विघटन
इस्लामी कानून के तहत विवाह (निकाह) को भी अनुबंध माना जाता था और आज भी है। विवाह में शामिल कोई भी पक्ष दूसरे पक्ष को प्रस्ताव देता है और अगर दूसरा पक्ष उसे स्वीकार कर लेता है, तो यह अनुबंध बन जाता है और पति को विवाह के समय या उसके बाद सम्मान के प्रतीक के रूप में पत्नी को एक राशि देनी होती है जिसे महर कहते हैं। मुसलमान ही तलाक की अवधारणा को मान्यता देने वाले पहले लोग थे। विवाह में शामिल कोई भी पक्ष विवाह के तहत अनुबंध संबंधी दायित्वों से खुद को मुक्त कर सकता है। इन कारणों से मुस्लिम विवाहों को अनुबंध माना जाता है।
4. हिन्दू काल
हिंदू कानून अंग्रेजी कानून से मौलिक रूप से भिन्न है। हिंदू कानून स्मृतिकारों की कई प्रथाओं और कार्यों के संकलन का परिणाम है, जिन्होंने हिंदू कानून के विभिन्न पहलुओं को विकसित करने के लिए वेदों की व्याख्या और विश्लेषण किया तथा मनुस्मृति मे अनुबंध कानून के दोशो को हटा कर लिखा गया था।
वह सिद्धांत निर्धारित किया गया थ जिसका भारतीय अनुबंध अधिनियम में भी पालन किया जाता है, जिसमें कहा गया है कि नाबालिग, या नशे में धुत व्यक्ति या बूढ़े व्यक्ति या अपंग द्वारा किया गया अनुबंध वैध अनुबंध नहीं है। नाबालिग द्वारा अनुबंध के संबंध में, नारद स्मृति के अनुसार 8 वर्ष तक की अवस्था तक शिशु काल माना जाता है। उसके बाद 8 वर्ष से 16 वर्ष तक के बच्चे को लड़कपन माना जाता है और 16 वर्ष के बाद व्यक्ति अनुबंध करने के लिए सक्षम होता है। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अनुबंध करने के लिए वयस्कता की अवस्था 16 वर्ष है, जो भारतीय अनुबंध अधिनियम के तहत निर्धारित की गई अवस्था से 2 वर्ष कम है।
5. ब्रिटिश काल
भारतीय अनुबंध अधिनियम के आगमन से पहले, मद्रास, बॉम्बे और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी शहरों में किंग जॉर्ज द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को जारी किए गए 1726 के चार्टर के तहत अंग्रेजी कानून लागू किया गया था। इसके बाद चूंकि कोई भी प्रणाली सभी अनुबंधो के कानूनो को लागू करने योग्य नहीं थी इसलिए अंग्रेजों ने दो धारणाएँ प्रख्यापित कींः
1. एक यह धारणा कि अनुबंध आम तौर पर लागू करने योग्य होते हैं, और फिर उन अनुबंधो के अपवाद बनाते हैं जिन्हें लागू करना अवांछनीय माना जाता है।
2. दूसरी धारणा यह है कि अनुबंध आम तौर पर लागू नहीं करने योग्य होते हैं, और फिर उन वादों के अपवाद बनाते हैं जिन्हें लागू करना वांछनीय माना जाता है।
ऐसे अनुबंध जहां पक्षों अलग अलग धर्म से है जैसे कि अगर एक पक्ष हिंदू है और दूसरा मुस्लिम है, तो उस स्थिति में, प्रतिवादी के कानून का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। प्रेसिडेंसी शहरों में इसका पालन किया गया था, लेकिन प्रेसिडेंसी शहरों के बाहर के शहरों में न्याय, समानता और अच्छे विवेक से नियंत्रित किया जाते थे।
यह प्रक्रिया तब तक अपनाई गई जब तक कि भारत में भारतीय अनुबंध अधिनियम लागू नहीं हो गया। 1862 के वर्षों में, बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास शहरों में उच्च न्यायालयों की शुरुआत हुई और इन उच्च न्यायालयों के चार्टर में भी पिछले कानून के समान ही प्रावधान था कि उच्च न्यायालय अनुबंध मामलों के संबंध में कोई भी निर्णय देने से पहले संबंधित धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों को लागू करेंगे।
1. भारतीय संविदा अधिनियम का आगमन
आज के समय में लागू भारतीय संविदा अधिनियम का प्रारूप मूल रूप से वर्ष 1861 में इंग्लैंड में तीसरे भारतीय विधि आयोग द्वारा तैयार किया गया था। भारतीय संविदा विधेयक ने संविदा, चल सम्पत्तियों की बिक्री, क्षतिपूर्ति, गारंटी, एजेन्सी, भागीदारी और निक्षेप से संबंधित कानूनों को परिभाषित करने का प्रयास किया।
यह विधेयक संविदा का पूर्ण कानून नहीं था, लेकिन इसका उद्देश्य देश की आवश्यकताओं के अनुरुप था और उस अवधि के दौरान न्यायालयों के न्यायाधीश न्याय, योग्यता और अच्छे विवेक पर विचार करके निर्णय पर पहुंचने में विफल होने पर मामले का निर्धारण करने में अंग्रेजी कानूनों की सहायता ले रहे थे। एक बार जब कोई व्यक्ति कोई वादा करता था तो उसे अपने जीवन के अंतिम दिन तक उसे पूरा करना होता था।
यद्यपि ऐसा लग सकता है कि इस तरह का एक कठोर सिद्धांत समझ में आता है, कुछ अपवाद प्रदान किए जाने चाहिए अन्यथा यह समुदाय के लिए एक बड़ा अन्याय होगा। इस तरह के दोष के साथ भी, संविदा कानून प्रभावी हुआ। विधेयक के प्रारूपकार को पता था कि विभिन्न धार्मिक लोग व्यक्तिगत कानूनों का पालन करते हैं और उनके लिए नए नियमों का पालन करना मुश्किल होगा, इसलिए संविदा कानून मे शर्त थी कि किसी भी पहलू को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों के विशेष रीति-रिवाज नए नियमों से प्रभावित नहीं होंगे, जब तक कि वे नए नियमों के विपरीत न हों। यह अधिनियम 1872 में लागू हुआ, लेकिन उसके तुरंत बाद उस संबंध में संशोधन किए गए, जिसने माल की बिक्री अधिनियम से संबंधित धारा 76 से 123 को निरस्त कर दिया और उस क्षेत्र को नियंत्रित करने के लिए अलग से कानून बनाए गए, जिन्हें माल की बिक्री अधिनियम 1930 कहा जाता है। साथ ही भागीदारी से संबंधित धारा 239 से 266 को निरस्त कर दिया गया और भारतीय भागीदारी अधिनियम 1932 नामक नया कानून बनाया गया।
निष्कर्ष
वैदिक काल व रोमन काल से लेकर मुस्लिम काल, हिंदू काल और विभिन्न कालखण्ड मे अनुबंध के विकास का विश्लेषण करके, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है तकनीकी, सजा के तरीके, साधन और कानून की प्रयोज्यता भिन्न हो सकती है, लेकिन सभी कानूनों का अंतर्निहित सिद्धांत एक ही रहा, दोनों पक्षों द्वारा एक ही तरीके और एक ही अर्थ में सहमति दी जानी चाहिए, नाबालिग, व्यक्ति नशे में होने की दशा मे और बूढ़ा व्यक्ति अनुबंध नहीं कर सकता। अंग्रेजों ने एकरूपता लाने के लिए विभिन्न धार्मिक समूहों के व्यक्तिगत कानूनों को भी शामिल करने की कोशिश की, जब तक कि वे मुख्य कानून के विपरीत न हों, क्योंकि उन्हें एहसास हुआ कि व्यक्तिगत कानून के लिए अंतर्निहित सिद्धांत अनुबंध अधिनियम के समान है।
अतः यह कहा जा सकता है कि विभिन्न कालखण्ड में अनुबंध कानून में संशोधन किया गया है तथा विभिन्न समुदायों में अलग-अलग तरीकों से इसकी व्याख्या की गई है, लेकिन सामान्य सिद्धांत अपरिवर्तित रहे हैं तथा इसे बदलने का कोई व्यापक संभावना नही है।